आज का आशिक़ (हिंदी कविता )


आज का मजनू, अपने आप को आशिक मान बैठा है,
खुद को समझदार और जमाने को गवार मान बैठा है,
थोड़े दिन के इश्क़ मैं अपनी महबूबा को जान मान बैठा है          
जिन माँ बाप ने ज़िन्दगी भर पाला पोसा उनको पराया मान बैठा है

अब दोस्त सुहाते है, और ही दुनिया, सबको दुश्मन मान बैठा है
मजनू अपनी लैला को संसार मान बैठा है
बस अपनी ही मेहबूबा की याद सताती है,
थोड़ा कुछ हो जाये मेहबूबा को, तो फट से दौड़ा चले जायेगा,
ये आशिक़ अपने आप को मेहबूबा का बाप मान बैठे है

आज का मजनू, अपने आप को आशिक मान बैठा है,
खुद को समझदार और जमाने को गवार मान बैठा है,

ये आज का मजनु है ग़ालिब, अपने आप को आशिक मान बैठा है,
जिस से घर का एक काम न होता था,
ये सब कुछ कर जाएगा अपने प्यार में,
खुद को भगवान मान बैठा है


ये आशिक़ है साहब, दुनिया से लड़ जायेगा,
ये खुद को सुपर हीरो मान बैठे है

सुबह शाम अपनी महबूबा को ले जाने और लाने के लिए तैयार,
अपने आप को उसका परमानेंट ड्राइवर मान बैठा है


एक छींक जाये अपनी महबूबा को, सारे काढ़े बनाने को तैयार
ये  आशिक  अपने  आप  को  हाकिम  मान  बैठा  है
एक ही इंसान के कितने किरदार है
ये  अपने  आप  को  फिल्मो  का  नायक  मान  बैठा  है

आज का मजनू, अपने आप को आशिक मान बैठा है,
खुद को समझदार और जमाने को गवार मान बैठा है,

-कवि अंदरूनी  



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